Sunday 15 December 2013

ढाबा ,
2 cutting
long drives
बरसो बाद मिलने का अहसास,
आँखों से बरास्ता प्यार,
पुरानी, नयी, पगली समझदार,
हर तरह कि बातें,
कभी न खत्म हो ऐसा एक लम्बा रास्ता,
बहती जा रही नदी,
पेड़, पौंधे, पंछी,
सूरज कि किरणे,
बादलो कि छाँव,
sunrise , sunset
under bridge , over bridge
किस्से, कहानिया, नादानीया
मनमानियां,
सबसे ऊपर,
कुदरत कि महरबानिया,
confusion , confirmation
एक ख़ास किसम का attention
इन्ही पालो के बिच में
कहीं न कहीं,
उसके पास मैं
मुझको छोड़ आयी,
मुझको छोड़ उसकी यादो को
अपने साथ मोड़ आयी .

(C) D!Sha Joshi.
(11/12/13)

उड़ान

एक वो है,
गेहरी सांस ली,
और खुले आसमान कि ख्वाहिश में,
ज़ंझीरे तोड़ के ,
निकल पड़ा
गिरने का डर तो है,
टूटके बिखरने का डर
सारे डर  को पीछे छोड़,
दरिया में डूबने कि चाह में,
ऊपर उड़ान भरी उसने,
बहोत उपर… और उपर…

और एक मैं,
चार दीवारो के बिच,
न कोई ज़ंझीर है मेरी,
अपने कोने में बैठ,
आसमान में उड़ रही हूँ,
न गिरने का डर है,
न टूटके बिखरने का,
पंख फैलाये उड़ रही हूँ,
दरिया में डूब भी रही हूँ मैं,
अपनेआप में उड़ रही हूँ,
अपेनआप में डूब भी रही हुँ मैं
अंदर उड़ान भरी,
अपने अंदर ... और भी अंदर ...

(C) D!sha Joshi

Thursday 5 December 2013

रात

धीमे धीमे से गुज़रती है रात
जैसे एक मॉम है पिघलती है रात.

झोंका हवा का जो छू के गया तो,
देखना फिर कितना मचलती है रात.

सन्नाटो कि पूंजी को दिल में समेटे
दबे पाँव मुझमें भी चलती है रात.

गुमसुम- खामोश इसे भोली न समझो
कई शकले पल में बदलती है रात .

वोह क्या चाहती है नहीं जान पाती,
कभी कभी मुझसी तड़पती है रात .

वोह जानती है मुझको न चाहूं में उसको,
फिर भी
हर रात मुझमें उछलती है रात .

सवेरा जो आया हर तरफ है धुंआ,
देखो? मुझसे कितना ये जलती है रात .

(C) Disha Joshi

Wednesday 8 May 2013

Swimming Classes

Boat માં પાણી ભરાવા લાગ્યું,
ડૂબવાના આરે હૂં,
ને આ વરસાદ
થોડા છાંટા મો માં ગયા,
એ પણ ખારા લાગ્યા,
શું કરું ?
કઈ રીતે બચાવું પોતાને ?
એક પછી એક સપના તૂટવાનો અવાજ,
કોઈ આશા હવે નથી બચી,
દરિયો પણ અત્યારે જ ભૂખ્યો થયો?
એને ગાળવા માટે હું જ મળી?
આ રાત ની કાળી ચાદર,
ને તારાઓ ની dim light સાથે
મારી બચવાની કોશિશ .
કઈ પણ કરીને કિનારે પોહોચી જવ,
પણ તરતા ક્યાં આવડે છે મને?
Swimming Classes ની fees ભરી હતી,
પણ શીખવા જાવ એની પેહેલા આ શું?
અચાનક ઝાટકો વાગ્યો,
ઊંઘ માંથી ઉભી થયી,
T - Shirt પરસેવાથી
ભીની થયી ગયી હતી,
ને આંખો માંથી નીકળેલ પેલું આંસુ,
ગાલ પર થઇ ને હોઠ સુધી મેહેસુસ થતું હતું.
 
- D!sha Joshi.

Sunday 5 May 2013

તારી યાદો

હજી હમણાં જ તો
આ નાખ કાપ્યા હતા,
ફરી આવી ગયા,
પેલી ઘરના દરવાજા પર
લટકાતી વેલ ની જેમ,
ગમે તેટલો આકાર આપું,
પણ આકાર માં બેસવું
જાણે એનો સ્વભાવ નથી,
ઉગી નીકળશે આમ તેમ,
આડી અવળી,
ગમે ત્યારે, ગમે ત્યાં,
આ પવન ની લેહેરખી જો ને?
diary નું એ જ પાનું ખોલશે,
કેટલી વાર બંધ કરી,
પણ ફરી નજર પડે ત્યારે
એ જ પાનું ખૂલેલું હશે,
જાણે પીછો છોડવા નથી માંગતી,
તારી યાદો . <3 :)
- Disha Joshi

Wednesday 1 May 2013

बंध कमरे में.

बंध कमरे में,
मैं और वो,
आज फिरसे
एकदूसरे के सामने आ गए,
सिर्फ मुझे दीखता है वो,
शायद नाराज़ है मुझसे!
प्यार से उसे अपनी गोद में बिठाया,
आज कितने दिनों बाद
उसे इतने करीब से देखा,
कैसे मनाऊं?
प्यार करूँ?
सोच रही हूँ,
क्या करू? क्या जताऊं ?
छू लूँ? किस तरह उसे पा लूँ?
उसने नाराज़गी के साथ पूछा मुझको,
हकीकत क्यों नहीं बना देते मुझे अपनी?
कितना भोला है वो !
हकीकत बनाना चाहते हुए भी
नहीं बना सकती।
वक़्त की जंजीरे,
समाज की,दुनिया की जंजीरे,
कैसे समझाऊं उसे?
आज भी एक हादसे से
वो सामने आ गया था,
कभी कभी सपनो के पंख निकल आते है,
बंध कमरे में।


(C) Disha Joshi.

Thursday 4 April 2013

तेरी यादें

काले घने बादलो सी वो
आज मुझपे बरसने वाली है,
चारो और बिखरी पड़ी है
हवा की तराह ,
साँसों की तराह,
मेरे अन्दर बहार
आ जा रही है,
तेरी यादें,
वो पुराने किस्से,
वो हसी वो ख़ुशी,
बिजली सा रगों में
कडकडा ने लगा,
कितने दिनों बाद आज
फिरसे मेरे ऊपर,
तेरी यादों का साया
मंडराने लगा।
बादलों सी दबे पाँव
एक के बाद एक,
मुझसे नज़दीकियाँ
बढ़ाती जा रही है,
कुछ कहूँ, सोचूं,
या जताऊं उसके पहेले,
कमरे में हसी की आवाज़ गूंज उठी,
देखा तो कोई न था,
आईने पर नज़र पड़ी
देखूं तो तेरा चेहेरा
मुझपे प्यार बरसा रहा था,
फिर आसमान की और देखा,
बादलो की चद्दर में से
आधा मुह निकाले
वो चाँद भी मुझे देख,
मुस्कुरा रहा था।

D!sha Joshi.

Sunday 10 March 2013

Story Of a Tree.

                       इतने सालों से दिन रात भाग दौड़ करती ये सड़क पे मैं अकेला पेड़ यहाँ खड़ा था, रोज़ कितने लोग आते जाते रहेते है पर मेरे सामने देखने के लिए किसीके पास वक़्त नहीं था। हररोज़ सबको देखता कोई खुद में खोया तो कोई दूसरो में, कई सारे लोग मेरी छाँव में आके बैठके आराम करके निकल जाते। मैं उन्हें देखता उनके दिल-ओ-दिमाग में दुनिया के कई सारे कचरे भरे पड़े होते थे सब महेसुस करता।

                     ये पंछी भी मेरे हाथों पे बैठके आराम करने आते, कभी बातें करते तो कभी दुसरे पंछी का इंतज़ार। कभी लम्बी उड़ान भरके आये पंछियों की बातों को सुनता, वो सुनके मुझे भी उस ऊपर रहे नीले आसमान में उड़ने का मन करता था । पर मैं उड़ने के लिए नहीं बना था। मैं इस ज़मीं की ज़न्झिरों से बंधा हुआ था, मेरा काम था सबको छाँव देना, चुप चाप खड़े रहेना। कैसे उड़ सकता मैं? सब पंछियों को और इंसान को भी मेरे होने का तो अहेसास था, पर मेरे जिंदा होने का अहेसास जैसे किसीको नहीं था।

                     पर आज जैसे कुछ अलग होना था, जैसे मेरे कभी न ख़तम होने वाले इंतज़ार को पूरा होना था। सब यहाँ खुदके लिए यानी आराम करने और चले जाने के लिए आते थे पर आज वो खुदके लिए नहीं जैसे मेरी छाँव में मेरे ही लिए आई हो। इस धुप की आग में जलते हुए आज नजाने कहाँ से? किस दुनिया से वो मेरे पास आई थी? पहेले तो मैंने कभी इस रास्ते पर आते या जाते उसे नहीं देखा था। एक अलग बात थी उसमे।

                     ध्यान से देखा उसकी आँखों में सच्चाई जो आज के ज़माने में ढूंढने निकालो तो भी न मिले वैसे चमक रही थी मोती बनके। उसके अन्दर एक आराम था, और मस्ती भी भरी थी, बदन की थकान को दिमाग पे लेके उसने मेरे सामने देखा। जैसे उसकी नज़र मुझपे पड़ी मेरी जिंदगी भर की थकान जैसे इसी पल में उतर गयी, क्या पता मुझमे क्या देखा उसने? मुझे लगा जैसे मेरे अन्दर रहेती जिंदगी को उसने महेसुस किया हो।

                      थोड़ी देर मुझे बस तकती रही अपने गुलाबी दुपट्टे से पसीना पोछती हुई धीरे से मेरे करीब आई और मेरी छाँव में समां गयी। उसको अपनी छाँव में समाके खुदको पाने का अहेसास हुआ, उन पंछियों की तरह जैसे उड़ रहा था मैं। फुल सी नाज़ुक वो अपने अन्दर मेरे लिए जैसे एक छाँव समाके लायी हो। यही वो लम्हा था जिसमे मेरी हर ख्वाहिश को पिघलना था, ज़मीन से बंधी मेरी ज़न्झिरे मुझे टूटती नज़र आ रही थी। अब यहाँ रहेके मुझे क्या करना था? एक पत्ता बनके ज़र गया मैं उसपे, हवाके झोके की मदद से उसके पैरो को छुआ तब मुझे महेसुस हुआ के छाँव क्या होती है। जैसे मेरे अन्दर मरी पड़ी मेरी ज़िन्दगी आज जिंदा हुई थी, जैसे उन पंछियों की तरह मेरे पर निकल आये थे।

                      इतना प्यार खुदमे समेटे जैसे कुदरत खुद मुझे लेने आई हो, उसने अपने हाथों में मुझे इस कदर लिया जैसे कोई माँ अपने बच्चे को बाहों में ले रही हो। जिंदगी के सारे लम्हे एक तरह और ये लम्हा एक तरफ। आस पास की दुनिया जैसे जम सी गयी थी, इस पल को जैसे कुदरत भी थम गयी थी। मेरी हर ख्वाहिश हर आरजू जैसे पूरी हुई हो। पूरी जिंदगी आँखों के सामने आ गयी और जब खुदको उसके हवाले किया तब अहेसास हुआ के इतने साल ऐसे कटे क्युकी इस लम्हे में इस पल में मुझे होना था। अपने आपको उसके हवाले कर अब जिंदगी भर बस सोना था।

- D!sha Joshi.


Friday 22 February 2013

बड़े अरसो बाद.

बड़े अरसो बाद जैसे
खुदको पा लिया,
बदला बदला सा मेरा चेहरा,
हरदम उतरासा उखाड़ासा वो,
आज अचानक चमक रहा था,
बेनूर आँखों में रोशनी भरी थी,
मैं ही हूँ? शायद आईना?
या कुछ और?
या सिर्फ मेरा भरम?
सोचा उसे छू लूँ,
बाहों में अपनी भर लिया,
वो ही जज़बात,
खुदको पाने का अहेसास,
बेजान बाहों में जैसे
जान आ गयी,
अमावस्या की रात में
चांदनी छा गयी,
क्या है ये?
खुदको कोई कैसे पा सकता है?
कौन है ये?
जो मुझमे जिंदगी भर रहा है?
वो बाहों  से जाग जब आँखें खुली,
"उन्हें" देखा अपने सामने,
हस पड़ी में खुदपे,
बड़े अरसो बाद मैंने
उनको पा लिया।

(C) D!sha Joshi.

Monday 18 February 2013

खामोशियाँ

नीला सा आसमान,
चन्दा की चांदनी,
कहीं संभलते  तो कहीं
टूट के गिरते ये तारे,
इन हसीन वादियों में-
नजाने कौन सी ख्वाहिशों में
बेह रही हूँ मैं,
एक हवा झोका करीब आके
मेरे कानों में कुछ केह गया,
नींद से जागी देखूं
हर तरफ खामोशी सा रेह गया,
अँधेरा ही अँधेरा,
सुनाई दे रही है तो बस
कुछ अनकही कहानिया,
अनगिनत ये ख्वाब,
अनगिनत ख्वाहिशें,
सोचु कभी तो लगता है जैसे,
मुझको ही खामोश कर देती है
मेरी ही ख्वाहिशों की खामोशियाँ।

(C) D!sha Joshi.

Sunday 10 February 2013

आहटें

दुपहर को देखा न जाने
फर्श  पर ये परछाई है किसकी,
वो बंध दरवाज़ा,
खुली हुई खिड़की,
फर्श पर लेटी धुप ,
धुप में बदन को सेकती ये परछाई,
खिड़की से आती हवा,
कुछ बातें करते रहेते है,
आहटों सा देते रहेते है,
कुदरत की आहटें है या खुद कुदरत?
नासमझ मैं ये आहटों को
लफ्जों में बुनती रहेती हूँ,
वो फर्श पे लेटी परछाई में अपनी
गेहेराई को ढूँढती रहेती हूँ।

(C) D!sha Joshi.

Wednesday 16 January 2013

लोरियां.

अपनी आवाज़ में वो
चाँद-तारो को बहाती होगी,

उसकी बाहों की गर्मी में
बेख़ौफ़ आग भी ठंड पाती होगी ,

उसे करीब पाके दिन रात दौडती
ये धड़कन भी चेन पाती होगी ,

जिस्म को कबर में मिलता आराम
उसकी एक छुअन दिलाती होगी,

प्यार के दरिये को खुदमे समेटे
वो जब भी कुछ गुनगुनाती होगी ,

खुद रात को भी नींद आती होगी,
किसी घर में
माँ जब भी लोरियां गाती होगी .

(C) D!sha Joshi.