Wednesday 28 May 2014

दिखावा

घर आते वक़्त रस्ते पर देखा
एक पेड़ गिरा पड़ा था,
सब देखने आ गए
उस पेड़ की मौत,
नजाने कितने सालों से
बारिश और तूफ़ान के आगे वो लड़ रहा होगा,
आज लड़ते लड़ते वो टूट गया.
हम भी तो टूटे हुए है,
बाहर से एक, और अंदर से
कई सारे पुरजो में बटे हुए,
हर एक पुरजा लड़ रहा है जीने के लिए,
जैसे कोई जंग चल रही है
ज़िंदगी और मौत के बीच,
ज़िंदगी जीते जीते ऐसे कई बार
हम मरे होंगे,
वो असली मौत है और
उसमे से उभरना  ज़िंदगी.
फिर एक वक़्त आएगा
जब हमारी धड़कन उन पुरजो में
बटना छोड़ देंगी ,
बिखरी पड़ी रूह से शरीर का बोझ
उठाया नहीं जाएगा,
और तब ये शरीर मर जाएगा,
पर शरीर का मारना तो बस एक दिखावा है,
जैसे आज ये पेड़ मारा हुआ दिख रहा है,
वैसे ही, हाँ
बिलकुल वैसे ही.
- Disha Joshi

Sunday 18 May 2014

अकेलापन

सामने के मकान में
कितने दिनों से कोई चहल पहल नहीं थी,
सिर्फ एक ही बंदा रहता है,
पुरे दिन अपनेआप के अलावा
किसी और का चेहरा ना देखना ..
दिन कैसे काटता होगा?
आईने में जब देखता होगा, उसे
अपने अलावा कोई और भी दीखता होगा,
वो अकेला कहाँ है? उसके साथ,
अकेलापन भी रहता होगा.
उसकी फ़िक्र थी  मुझे,
अपने बचपन से आज तक देखा था उसको
कभी कभी सोचती हूँ
उसकी खुद्की आवाज़ भी उसे शोर लगती होगी,
सोचता  हगा कहाँ से आ रहा है ये शोर?
फिर उसे मेहसूस होता होगा
उसके अंदर खामोशी से भरे उस तालाब में
आवाज़ से गूंजती मछलिया भी रहती है !!
उसने कभी अपने मकान में
किसी और की चहल पहल
महसूस नहीं की होगी?
की ही होगी,
फिर वो भी पेहेचान गया होगा
तनहाई की उस चहल पहल को.
और फिर सबको पता चला वो मर गया
मैं सोचु, वो तो कबसे मारा पड़ा था,
ज़िंदा था उसमे कुछ
तो वो था उसका अकेलापन,
अच्छा हुआ वो भी मर गया,
अब शायद कहीं और
किसी दुनिया में,
शोर को महसूस कर पाए
उसके शरीर में कई सालों से बंध पड़ी
वो धड़कन फिरसे गूंज उठे और वो भी
अपने अकेलेपन से उभर आए।
- Disha Joshi