Tuesday 10 October 2017

नयी शुरुआत

कल रात जब खुदको देखा
टूट के बिखरी पड़ी थी मैं फर्श पर,
दिल कहीं और,
धड़कन कहीं और,
मैं कहीं और,
मेरा मन कहीं और,
ज़िंदगी न जाने क्या सीखा रही थी मुझे,
इतने सारे मेरे टुकड़े जो बिखरके पड़े थे,
वो जुड़ना चाहते थे,
कितनी कोशिशों के बेवहजूद
उनको जोड़ नहीं पायी मैं,
हार मान ली मैंने.
पता नहीं अचानक आँखें कब बंध हो गयी,
जब आँखें खुली तो
पंछियों की कल-कल सुनाई दे रही थी,
अभी तक फर्श पर ही पड़ी हुई थी मैं,
पर ज़िंदा!
कैसे?
कल रात तो मर रही थी मैं,
नया दिन बहार आके
दरवाज़ा खट खटा रहा था,
खिड़कियों में से बारिश की बुँदे भी
घर की मेहमान बनना चाहती थी,
जो हवा कल रात
घुटन सी लग रही थी,
अभी पर्दो के साथ उसी हवा के झोखे
लुक्का छिप्पी खेल रहे थे,
ज़िंदगी ने मुझे नया दिन दिया था,
ज़िंदगी ने मुझे नयी ज़िंदगी दी थी.
खुदमे कुछ नया नया सा
ज़िंदा ज़िंदा सा महसूस कर रही थी,
वो काली अँधेरी रात कहीं जा चुकी थी,
और अब जो भी था वो मुझपे था,
ये नया दिन, नयी शुरुआत
कैसे करनी है अब?
वो रात जब वापस आये
तब मुझको कुछ न कहे पाए,
अगर वो मुझे तोडना चाहे तो वो
खुद ही टुकड़ो में बट जाए,
ज़िंदगी का मतलब ही तो वो है
नयी शुरुआत,
टूट के बिखरना,
बिखरके जुड़ना,
और आगे बढ़ना.
- Disha.
11/10/2017